एक गांव में एक महापुरुष रहता था। वह कुएं पर स्वयं को लटकाकर ध्यान करता था, और वह कहता था, “जिस दिन यह जंजीर टूटेगी, मुझे ईश्वर मिल जाएंगे।” उनसे पूरा गांव प्रभावित था। गांव के सभी जन उनकी भक्ति, उनके तप की प्रशंसा करते थे।
उसी गांव के एक व्यक्ति- पारस के मन में इच्छा हुई कि, मैं भी ईश्वर दर्शन करु। मुझे भी प्रभु से मिलना है। पारस कुएं पर रस्सी से पैर को बांधकर, कुएं में लटक गया और कृष्णजी का ध्यान करने लगा। जब वह रस्सी टूटी, उसे कृष्ण भगवान ने अपनी गोद में उठा लिया और दर्शन भी दिया।
तब पारस ने पूछा, “भगवान जी, आप इतनी जल्दी मुझे दर्शन देने क्यों चले आये, जबकि वे महापुरुष महात्मा तो कई वर्षोंसे आपको बुला रहे हैं। कृष्ण बोले, “प्रिय पुत्र पारस, वो कुएं पर लटकते जरूर हैं, किंतु पैर को लोहेकी जंजीर से बांधकर लटकते है। पारस, क्या तुम्हे इसका तात्पर्य समझा? उस महापुरुष को मुझसे ज्यादा जंजीर पर विश्वास है। जबकि तुझे स्वयंसे ज्यादा मुझ पर विश्वास है। दोनो की श्रद्धामें, आकाशभुमि जैसा फर्क है। इसलिए मैं तुम्हे शीघ्र मिलने आ गया।”
“पता नहीं किस रूप में आकार नारायण मिल जाएगा,
निर्मल मन के दर्पण में वह राम के दर्शन पाएगा..”
भगवान का सन्निध प्राप्त होनेसे पारस का रोमरोम पुलकित हो गया। धन्य हो गया। उसकी अंदरुनी श्रद्धा सहस्र गुना वृद्धिंगत हो गई। वह नतमस्तक हो गया।
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कहानी की सीख:
ऐसा कोई नियम नही है कि, ईश्वर दर्शन में वर्षों लगने चाहिए। आपकी “शरणागति” आपको ईश्वर के दर्शन अवश्य कराएगी और शीघ्र ही कराएगी। आपको इस पारसकी तरह स्वयंकी आस्था व श्रद्धा में सातत्य रखना पडेगा। जो स्वच्छ शुद्ध अन्तरात्मा स्वभावयुक्त हो, अर्थात् पवित्र अन्तःकरणयुक्त हो, उसके एक आवाहन पर ईश्वर आएंगे।
“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ॥”
हे अर्जुन ! ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में स्थित हैं। शरीररूपी यंत्र पर आरूढ़ (चढ़े) हुए सब प्राणियों को, वे अपनी माया से घुमाते रहते हैं।
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