एक सिद्ध स्त्री सारंगी, एक बार कई संतों के संग बैठी बातें कर रही थी। तभी दुसरे एक सिद्ध जितेंद्रीय जी, वहाँ आ पहुँचे और बोले, “चलिए, इस सरोवर के ‘पानी पर बैठकर’ हम दोनों अध्यात्म की चर्चा करें।”
यह सिद्ध जितेंद्रियजी के बारे में प्रसिद्ध था कि, उन्हें ‘पानी पर चलने की सिद्धि’ प्राप्त है।
सारंगी जी समझ गई कि, जितेंद्रिय स्वयं की सिद्धी का प्रदर्शन करना चाहते हैं। बोलीं-“बंधु, अवश्य। पर यदि हम दोनों आसमान में उड़ते – उड़ते यह बातें करें तो कैसा रहे?”
सारंगी जी के बारे में भी प्रसिद्ध था कि, वे हवा में उड़ सकती हैं।) उन्हे यह सिद्धी प्राप्त थी। फिर गंभीर होकर बोलीं-“बंधु! जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है और जो मैं कर सकती हूँ वह हर एक मक्खी कर सकती है। सोचनेवाली बात यह है कि, सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है। उसे विवेक के साथ, विनम्र होकर खोजना पड़ता है। एक आध्यात्मिक को दर्प (अहंकार) करके अपनी गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए।”
यह सुनकर एवं समझकर, जितेंद्रियजी ने अध्यात्म का मर्म समझा और सारंगीजी को अपना गुरु मानकर आत्म – परिशोधन में जुट गए।
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कहानी की सीख:
बहुत परिश्रम से प्राप्त की हुई, विद्या या सिद्धी को आंतरिकतामें उतरने दिजिए। सिद्धीयोंका दंभ ना किजिए। आवश्यकता होनेपर ही इनका प्रयोग किजिए। अहंकार से मती तथा मार्ग भ्रष्ट हो जाता है।
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